Natasha

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राजा की रानी

जब हम लोग रेलवे-स्टेशन के लिए रवाना हुए तब सूरज छिप चुका था। गाँव के टेढ़े-मेढ़े रास्ते के किनारे अपने आप बढ़े हुए करौंदे, झरबेरी और बेंत के जंगल ने संकीर्ण मार्ग को और भी संकीर्ण बना दिया था और दोनों तरफ पंक्तिवार खड़े हुए आम-कटहर के पेड़ों की शाखाएँ सिर से ऊपर कहीं-कहीं ऐसी सघन होकर मिल गयी थीं कि शाम का अंधेरा और भी दुर्भेद्य हो गया था। उसके भीतर से गाड़ी जब अत्यन्त सावधानी के साथ बहुत ही धीमी चाल से चलने लगी तब मैं ऑंखें मींचकर उस निविड़ अन्धकार के भीतर से न जाने क्या-क्या देखने लगा। मालूम हुआ, इसी रास्ते से किसी दिन बाबा मेरी दीदी को ब्याह कर लाए थे, तब यह रास्ता बारातियों के कोलाहल और पैरों की आहट से गूँज उठा होगा; और, फिर किसी दिन जब वे स्वर्ग सिधारे, तब इसी रास्ते से अड़ोसी-पड़ोसी उनकी अरथी नदी तक ले गये होंगे। इसी मार्ग से ही मेरी मां ने किसी दिन वधू-वेश में गृह-प्रवेश किया था, और एक दिन जब उनके इस जीवन की समाप्ति हुई तब, धूल-मिट्टी से भरे इसी संकीर्ण मार्ग से अपनी माँ को गंगा में विसर्जित करके हम लोग वापस लौटे थे। उस समय यह मार्ग ऐसा निर्जन और दुर्गम नहीं हुआ था। तब तक शायद इसकी हवा में इतना मलेरिया और तालाबों में इतना कीचड़ और जहर इकट्ठा नहीं हुआ था। उस समय तक देश में अन्न था, वस्त्र थे, धर्म था, तब तक देश का निरानन्द शायद ऐसी भयंकर शून्यता से आकाशव्यापी होकर भगवान के द्वार तक नहीं पहुँचता था। दोनों ऑंखों में ऑंसू भर आए, गाड़ी के पहिए से थोड़ी-सी धूल लेकर जल्दी-से माथे और मुँह पर लगाकर मैंने मन-ही-मन कहा, 'हे मेरे पितृ-पितामह के सुख-दु:ख, विपद-सम्पद, और हँसने-रोने से भरे हुए धूल-मिट्टी के पथ, मैं तुम्हें बार-बार नमस्कार करता हूँ।' फिर अन्धकार में जंगल की ओर देखकर कहा, 'माता जन्मभूमि, तुम्हारी करोड़ों अकृती सन्तानों के समान मैंने भी तुम्हें हृदय से नहीं चाहा- और नहीं जानता किसी दिन तुम्हारी सेवा में, तुम्हारे काम में, तुम्हारी गोद में फिर वापस आऊँगा या नहीं। परन्तु आज इस निर्वासन के मार्ग में अंधेरे के भीतर तुम्हारी जो दु:ख की मूर्ति मेरे ऑंसुओं के भीतर से अस्पष्ट होकर प्रस्फुटित हो उठी है, उसे मैं इस जीवन में कभी नहीं भूल सकूँगा।'

ऑंख खोलकर देखा, राजलक्ष्मी उसी तरह स्थिर बैठी है। अंधेरे कोने में उसका चेहरा नहीं दिखाई दिया पर मैंने अनुभव किया कि ऑंखें मींचकर वह मानो चिन्ता में मग्न हो रही है और मन-ही-मन कहा, 'रहने दो ऐसे ही। आज से जब कि मैंने अपनी चिन्ता-तरणी की पतवार उसके हाथ सौंप दी है, तो इस अनजान नदी में कहाँ भँवरें हैं और कहाँ टापू, सो वही खोजती रहे।'

इस जीवन में अपने मन को मैंने अनेक दिशाओं में, अनेक अवस्थाओं में आजमाकर देखा है। उसके भीतर की प्रकृति मैं पहिचानता हूँ। किसी विषय में 'अत्यन्त' को वह नहीं सह सकता। अत्यन्त सुख, अत्यन्त स्वास्थ्य, अत्यन्त अच्छा रहना, उसे हमेशा पीड़ा देता है। कोई अत्यन्त प्रेम करता है; इस बात को जानते ही मन भागूँ-भागूँ करने लगता है, उसे मन ने आज कितने दु:ख से अपने हाथ से पतवार छोड़ दी है, इस बात को इस मन के सृष्टिकर्त्ता के सिवा और कौन जान सकता है?

बाहर के काले आकाश की ओर एक बार दृष्टि फैलाई- भीतर की अदृश्यप्राय निश्चल प्रतिमा की ओर भी एक बार दृष्टि डाली; उसके बाद हाथ जोड़कर फिर मैंने किसे नमस्कार किया, मैं खुद नहीं जानता। परन्तु, मन-ही-मन इतना जरूर कहा कि “इसके आकर्षण के दु:सह वेग से मेरा दम घुट रहा है, बहुत बार बहुत मार्गों से भागा हूँ, परन्तु फिर भी जब गोरखधन्धे की तरह सभी मार्गों ने मुझे बार-बार इसी के पास लौटा दिया है, तो अब मैं विद्रोह न करूँगा-अबकी बार मैंने अपने को सम्पूर्ण रूप से इसी के हाथ सौंप दिया। और अब तक अपने जीवन को अपनी पतवार से चलाकर ही क्या पाया? उसे कितना सार्थक बनाया? हाँ, आज अगर वह ऐसे ही हाथ जा पड़ा हो जो स्वयं अपने जीवन को आकण्ठ डूबे हुए दलदल में से खींचकर बाहर निकाल सका है, तो वह दूसरे के जीवन को हरगिज़ फिर उसी में नहीं डुबा सकता।”

खैर, यह सब तो हुआ अपनी तरफ से। परन्तु, दूसरे पक्ष का आचरण फिर ठीक पहले की भाँति शुरू हुआ। रास्ते-भर में एक भी बात नहीं हुई यहाँ तक कि स्टेशन पहुँचकर भी किसी ने मुझसे कोई प्रश्न करना आवश्यक नहीं समझा। थोड़ी देर बाद ही कलकत्ते जानेवाली गाड़ी की घण्टी बजी, लेकिन रतन टिकट खरीदने का काम छोड़कर मुसाफिरखाने के एक कोने में मेरे लिए बिस्तर बिछाने में लग गया। अतएव समझ लिया, कि नहीं, हमें सवेरे की गाड़ी से पश्चिम की ओर रवाना होना होगा। मगर, उधर पटना जाना होगा या काशी या और कहीं, यह मालूम न होने पर भी इतना साफ समझ में आ गया कि इस विषय में मेरा मतामत बिल्कुकल ही अनावश्यक है।

राजलक्ष्मी दूसरी ओर देखती हुई अन्यमनस्क की तरह खड़ी थी, रतन ने अपना काम पूरा करके उसके पास जाकर पूछा, “माँजी, पता लगा है कि जरा और आगे जाने से सभी तरह का अच्छा खाना मिल सकता है।”

राजलक्ष्मी ने ऑंचल की गाँठ खोलकर कई रुपये उसके हाथ में देते हुए कहा, “अच्छी बात है, ले आ वहीं जाकर। पर दूध जरा देख-भालकर लेना, बासी-वासी न ले आना कहीं।”

रतन ने कहा, “माँजी, तुम्हारे किये कुछ...”

“नहीं, मेरे लिए कुछ नहीं चाहिए।”

यह 'नहीं' कैसा है, इस बात को सभी जानते हैं। और शायद सबसे ज्यादा जानता है रतन खुद। फिर भी उसने दो-चार बार पैर घिसकर धीरे से कहा, “कल ही से तो बिल्कुल...”

राजलक्ष्मी ने उत्तर दिया, “तुझे क्या सुनाई नहीं देता रतन? बहरा हो गया है क्या?”

आगे और कुछ न कहकर रतन चल दिया। कारण, इसके बाद भी बहस कर सकता हो, ऐसी ताब तो मैंने किसी की भी नहीं देखी। और जरूरत ही क्या थी? राजलक्ष्मी मुँह से स्वीकार न करे, फिर भी, मैं जानता हूँ कि रेलगाड़ी में रेल से सम्बन्धित किसी के भी हाथ की कोई चीज खाने की ओर उसकी प्रवृत्ति नहीं होती। अगर यह कहा जाय कि निरर्थक कठोर उपवास करने में इसकी जोड़ का दूसरा कोई नहीं देखा, तो शायद अत्युक्ति न होगी। मैंने अपनी ऑंखों से देखा है, कितनी बार कितनी चीजें इसके घर आते देखी हैं, पर उन्हें नौकर-नौकरानियों ने खाया है, गरीब पड़ोसियों को बाँट दिया है- सड़-गल जाने पर फेंक दिया गया है, परन्तु जिसके लिए वे सब चीजें आई हैं उसने मुँह से भी नहीं लगाया। पूछने पर, मजाक करने पर, हँसकर कह दिया है, “हाँ, मेरे तो बड़ा आचार है! मैं, और छुआ छूत का विचार! मैं तो सब कुछ खाती-पीती हूँ।”

“अच्छा, तो मेरी ऑंखों के सामने परीक्षा दो?”

“परीक्षा? अभी? अरे बाप रे! तब तो फिर जीने के लाले पड़ जाँयगे!”

यह कहकर वह जीने का कोई कारण न दिखाकर घर के किसी बहुत ही जरूरी काम का बहाना करके अदृश्य हो गयी है। मुझे क्रमश: मालूम हुआ कि वह मांस-मछली दूध-घी कुछ नहीं खाती, परन्तु यह न खाना ही उसके लिए इतना अशोभन और इतनी लज्जा की बात है कि इसका उल्लेख करते ही मारे शरम के उसे भागने को राह नहीं मिलती। इसी से साधारणत: खाने के बारे में उससे अनुरोध करने की मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। जब रतन अपना मुरझाया-सा मुँह लेकर चला गया, तब भी मैंने कुछ नहीं कहा। कुछ देर बाद वह लोटे में गरम दूध और दोने में मिठाई वगैरह लेकर लौट आया, तब राजलक्ष्मी ने मेरे लिए दूध और कुछ खाने को रखकर बाकी का सब रतन के हाथ में दे दिया। तब भी मैंने कुछ न कहा और रतन की ऑंखों की नीरव प्रार्थना को स्पष्ट समझ जाने पर भी मैं उसी तरह चुप बना रहा।

अब तो कारण-अकारण और बात-बात में उसका न खाना ही मेरे लिए अभ्यस्त हो गया है। परन्तु एक दिन ऐसा था जब यह बात न थी। तब हँसी-दिल्लगी से लेकर कठोर कटाक्ष तक भी मैंने कम नहीं किये हैं। परन्तु, जितने दिन बीतते गये हैं, मुझे इसके दूसरे पहलू पर भी सोचने-समझाने का काफी अवसर मिला है। रतन के चले जाने पर मुझे वे ही सब बातें फिर याद आने लगीं।

कब और क्या सोचकर वह इस कृच्छ-साधना में प्रवृत्त हुई थी, मैं नहीं जानता। तब तक मैं इसके जीवन में नहीं आया था। परन्तु पहले-पहल जब वह जरूरत से ज्यादा भोजन-सामग्री के बीच में रहकर भी अपनी इच्छा से दिन पर दिन गुप्त रूप से चुपचाप अपने को वंचित करती हुई जी रही थी, तब वह कितना कठिन और कैसा दु:साध्यय कार्य था! कलुष और सब तरह की मलिनता के केन्द्र से अपने को इस तपस्या के मार्ग पर अग्रसर करते हुए उसने कितना न चुपचाप सहा होगा! आज यह बात उसके लिए इतनी सहज और इतनी स्वाभाविक है कि मेरी दृष्टि में भी उसकी कोई गुरुता, कोई विशेषता नहीं रह गयी है; इसका मूल्य क्या है, सो भी ठीक तौर से नहीं जानता, मगर फिर भी कभी-कभी मन में प्रश्न उठा है कि उसकी यह कठोर साधना क्या सबकी सब विफल हुई है, बिल्कुील ही व्यर्थ गयी है? अपने को वंचित रखने की यह जो शिक्षा है, यह जो अभ्यास है, यह जो पाकर त्याग देने की शक्ति है, अगर इस जीवन में उसके अलक्ष्य में न संचित हो पाती हो क्या आज वह ऐसी स्वच्छन्दता से, ऐसी सरलता के साथ अपने को सब प्रकार के भोगों से छुड़ाकर अलग कर सकती? कहीं से भी क्या कोई बन्धन उसे खींचता नहीं? उसने प्रेम किया है, ऐसे कितने ही आदमी प्रेम किया करते हैं, परन्तु सर्व-त्याग के द्वारा उसे प्रेम को ऐसा निष्पाप, ऐसा एकान्त बना लेना क्या संसार में इतना सुलभ है?

मुसाफिरखाने में और आदमी न था, रतन भी शायद आड़ में कहीं जगह ढूँढ़कर लेट गया था। देखा, एक टिमटिमाती हुई बत्ती के नीचे राजलक्ष्मी चुपचाप बैठी है। पास जाकर उसके माथे पर हाथ रखते ही उसने चौंककर मुँह उठाया, और पूछा, “तुम सोये नहीं अभी?”

“नहीं, मगर तुम यहाँ धूल-मिट्टी में चुपचाप अकेली न बैठो, मेरे बिस्तर पर चलो।” यह कहकर, और विरोध करने का अवसर बिना दिये ही मैंने हाथ पकड़कर उसे उठा लिया परन्तु अपने पास बिठा लेने पर फिर कहने को कोई बात ही ढूँढे नहीं मिली, सिर्फ आहिस्ते-आहिस्ते उसके हाथ पर हाथ फेरने लगा। कुछ क्षण इसी तरह बीते। सहसा उसकी ऑंखों के कोनों पर हाथ पड़ते ही अनुभव किया कि मेरा सन्देह बेबुनियाद नहीं है। धीरे-धीरे ऑंसू पोंछकर मैंने ज्यों ही उसे अपने पास खींचने की कोशिश की त्यों ही वह मेरे फैले हुए पैरों पर औंधी पड़ गयी और जोर से उन्हें दबाये रही। किसी भी तरह मैं उसे अपने बिल्कुरल पास न ला सका।

फिर उसी तरह सन्नाटे में समय बीतने लगा। सहसा मैं बोल उठा, “एक बात तुम्हें अब तक नहीं जताई लक्ष्मी।”

उसने चुपके से कहा, “कौन-सी बात?”

इतना ही कहने में संस्कारवश पहले तो जरा संकोच हुआ, मगर मैं रुका नहीं, बोला, “मैंने आज से अपने को बिल्कुरल तुम्हारे ही हाथ सौंप दिया है, अब भलाई-बुराई का सारा भार तुम्हीं पर है।”

यह कहकर मैंने उसके मुख की ओर देखा कि उस टिमटिमाते हुए उजाले में वह मेरे मुँह की ओर चुपचाप एकटक देख रही है। उसके बाद जरा हँसकर बोली, “तुम्हें लेकर मैं क्या करूँगी? तुम न तो तबला ही बजा सकते हो, न सारंगी ही बजा सकोगे और...”

मैंने कहा, “ 'और' क्या? पान-तम्बाकू हाज़िर करना? नहीं, यह काम तो मुझसे हरगिज़ नहीं हो सकता।”

“लेकिन पहले के दो काम?”

मैंने कहा, “आशा दो तो शायद कर भी सकूँ।” कहकर मैंने भी जरा हँस दिया।

सहसा राजलक्ष्मी उत्साह से बैठी और बोली, “मज़ाक नहीं, सचमुच बजा सकते हो?”

मैंने कहा, “आशा करने में दोष क्या है?”

राजलक्ष्मी ने कहा, “नहीं बजा सकते।” उसके बाद नीरव विस्मय से कुछ देर तक वह मेरी ओर एकटक देखती रही, फिर धीरे-धीरे कहने लगी, “देखो, बीच-बीच में मुझे भी ऐसा ही मालूम होता है; परन्तु, फिर सोचती हूँ कि जो आदमी निष्ठुरों की तरह बन्दूक लेकर सिर्फ जानवारों को मारते फिरना ही पसन्द करता है, वह इसकी क्या परवाह करनेवाला है? इसके भीतर की इतनी बड़ी वेदना का अनुभव करना क्या उसके लिए साध्य् हो सकता है? बल्कि शिकार करने के समान चोट पहुँचा सकने में ही मानो उस आनन्द मिलता है? तुम्हारा दिया हुआ बहुत-सा दु:ख मैं यही सोचकर तो सह सकी हूँ।”

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